1971 के बांग्लादेश युद्ध में रूस ने निक्सन की सारी हवा निकाल दी
वाशिंगटन, 3 दिसम्बर 1971, 10:45 बजे सुबह
अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन फ़ोन पर विदेश मन्त्री हेनरी किसिंजर से बात कर रहे हैं। कुछ घण्टों पहले ही पाकिस्तान ने भारत के छह हवाई अड्डों पर एक साथ हमला बोला है, जिसके जवाब में भारत ने भी युद्ध की घोषणा कर दी है।
निक्सन — तो पाकिस्तान भारत को खूब छका रहा है, क्यों?
किसिंजर — यदि पाकिस्तानी बिना लड़े ही अपने देश का आधा हिस्सा छोड़े देंगे, तब तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। वैसे अब भी उनसे कुछ होने वाला नहीं है, लेकिन कम से कम वे आख़िरी साँस तक लड़ तो सकेंगे।
कारगिल युद्ध और भारतीय वायुसेना के कारनामे
निक्सन — पाकिस्तान के मामले को लेकर आप बेकार ही बेचैन हो रहे हैं। भारत के लिए पाकिस्तान को रौंदना इतना आसान नहीं है। और हमने उस कुतिया (यह इशारा भारत की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की ओर था) को चेतावनी भी तो दे रखी है। पाकिस्तानियों को बताइए कि जब भारत दुनिया से कहता है कि पाकिस्तान उस पर हमला कर रहा है, तो उसकी बात को कोई नहींं मानेगा क्योंकि यह तो वही बात हुई कि रूस यह दावा करे कि फ़िनलैण्ड ने उसके ऊपर आक्रमण कर दिया है।
वाशिंगटन, 10 दिसम्बर 1971, 10:51 बजे सुबह
एक हफ़्ते बाद अब लड़ाई में पाकिस्तान की हालत काफी पतली हो गई है। भारतीय सेना की बख़्तरबन्द गाड़ियाँ पूर्वी पाकिस्तान का सीना चीर कर आगे बढ़ रही हैं और भारतीय उपमहाद्वीप के आसमान में पाकिस्तानी वायुसेना का कहीं अता-पता नहीं है। उधर भारतीय थलसेना और वायुसेना ने पश्चिमी पाकिस्तान में दिन-रात लगातार प्रलय मचा रखी है। पाकिस्तान की सेना का मनोबल बिल्कुल टूट चुका है और वह भारत की सेना के सामने घुटने टेकने ही वाली है।
निक्सन — हम, बस, पश्चिमी पाकिस्तान को बचाना चाहते हैं।
किसिंजर — जी, जी, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं।
निक्सन — हाँ, तो अपने विमान-वाहक बेड़े को भेज दीजिए।
किसिंजर — विमान वाहक युद्धपोत ही नहीं, हर तरह का साजोसामान उधर भेजा जा रहा है। जार्डन के चार लड़ाकू हवाई जहाज़ पहले ही पाकिस्तान पहुँच चुके हैं। उसके और 22 लड़ाकू हवाई जहाज़ भी जल्दी ही पहुँचने वाले हैं। हम सऊदी अरब से बात कर रहे हैं। अभी-अभी पता चला है कि तुर्की पाँच लड़ाकू हवाई जहाज़ भेजने के लिए तैयार हैं। कोई न कोई बन्दोबस्त होने तक हम पाकिस्तान को लगातार मदद भेजते ही रहेंगे।
निक्सन — क्या आप चीन से नहीं कह सकते कि वह भी अपनी कुछ टुकड़ियों को भारत की सीमा पर लामबन्द करे या कम से कम ऐसा करने की धमकी ही दे दे। इससे पाकिस्तान को बड़ा आराम मिलेगा।
किसिंजर — क्यों नहींं कह सकता। बिल्कुल कह सकता हूँ।
निक्सन — या तो चीन भारत को धमकाए या अपनी कुछ टुकड़ियों को लामबन्द करे। दो में से कोई भी काम कर दे। आप समझ रहे हैं, मैं क्या कह रहा हूँ?
किसिंजर — जी, अच्छी तरह से।
निक्सन — अगर फ़्राँस पाकिस्तान को कुछ लड़ाकू हवाई जहाज़ बेच दे, तो कैसा रहेगा
किसिंजर — बिल्कुल, बिल्कुल। वे पहले से ही यह काम कर रहे हैं।
निक्सन — यह काम तो काफ़ी पहले ही किया जाना चाहिए था। चीन ने अभी तक भारत को चेतावनी नहीं दी है।
किसिंजर — हाँ, ये बात तो है।
निक्सन — उसे, बस, कुछ चहल-पहल ही तो दिखानी है। एक डिवीजन लामबन्द कर दे। कुछ नहीं, तो कुछ ट्रकों को ही सीमा की ओर भेज दें। दो-चार लड़ाकू हवाई जहाज़ों को ही भारत की सीमा के इर्द-गिर्द मँडराने दे। मेरे कहने का मतलब यह है कि दिखावे के लिए ही कुछ कर दे। हेनरी, आपको पता है कि हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। क्यों?
किसिंजर — सही कह रहे हैं।
निक्सन — लेकिन ये भारत के लोग बड़े डरपोक हैं। हैं ना?
किसिंजर — आपकी बात सही है। लेकिन भारत रूस के बल पर कूद रहा है। रूस ने भी ईरान, तुर्की तथा ढेर सारे अन्य देशों को धमकी भरे सन्देश भेजे हैं। रूसियों ने ही तो सारा खेल बिगाड़ दिया है।
अमरीका के ये दोनों धूर्त नेता उस समय भारतीयों को डरपोक कह रहे थे। किन्तु उससे कुछ महीने पहले ही भारतीयों को लेकर इन दोनों महानुभावों की राय इससे बिल्कुल उलट थी। मई 1971 में उनके बीच हुई इस फ़ोन वार्ता में इस बात की झलक देखी जा सकती है।
निक्सन — भारतीयों को तो — उनके साथ तो सचमुच ऐसा ही होना चाहिए कि —
किसिंजर — वे सच में बहुत बदमाश हैं।
निक्सन — भारत में तो भयंकर अकाल पड़ना चाहिए। लेकिन क्या कहा जाय, ऐसा होने नहीं जा रहा…वैसे यदि वहाँ पर अकाल नहीं पड़ने वाला है, तो कोई बात नहीं। उनके ऊपर एक और युद्ध थोप देना चाहिए। देखते हैं कि ये दुष्ट भारतीय किस खेत की मूली हैं?
किसिंजर — बिल्कुल सही, भारत उस इलाके का सबसे ज़्यादा हमलावर मुल्क है।
1971 के युद्ध को सैन्य दृष्टि से आधुनिक भारत का सबसे सुखद कालखण्ड माना जाता है। भारत की यह प्रख्यात विजय भारतीय थलसेना, नौसेना तथा वायुसेना के पेशेवर फ़ैसलों; यशस्वी सैम मानेकशा के नेतृत्व में करिश्माई सैन्य अधिकारी वर्ग और राजनीतिक नेताओं द्वारा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन जुटाने के अनवरत प्रयासों का सम्मिलित परिणाम थी। दो हफ़्ते तक चली भीषण ज़मीनी, हवाई व समुद्री लड़ाइयों के बाद पाकिस्तान के लगभग एक लाख सैनिकों ने भारत की प्रतापी सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। 1943 में स्तालिनग्राद शहर में जर्मन जनरल पालस के रूसी सेना के सामने हथियार डालने के बाद से यह दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। हालाँकि वीटो की ताक़त से लैस रूस यदि भारत की सहायता न करता, तो भारत के लिए यह सब कुछ करना इतना आसान नहीं था। भारतीय नेताओं ने 1970 में रूस के साथ सुरक्षा सन्धि पर हस्ताक्षर करके सचमुच बड़ी दूरदृष्टि का परिचय दिया था।
कश्मीर पर सौवाँ वीटो लगाकर रूस ने पश्चिम की हवा निकाल दी थी
अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन और धूर्त किसिंजर की इन बातचीतों से एक बात साफ़ हो जाती है कि भारत विरोधी ताक़तें काफी दुर्जेय थीं। जार्डन, ईरान, तुर्की और फ्राँस से मिले लड़ाकू हवाई जहाज़ों की वजह से पाकिस्तानी सेना बेहद उत्साहित थी। अमरीका, चीन और ब्रिटेन की ओर से पाकिस्तान को ख़ूब नैतिक समर्थन और सैन्य सहायता दी जा रही थी। निक्सन और किसिंजर की इन बातचीतों से हमें यह महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती कि सँयुक्त अरब अमीरात ने पाकिस्तान की सहायता के लिए लड़ाकू हवाई जहाज़ों का आधा स्क्वाड्रन ही भेज दिया था। यही नहीं, इण्डोनेशिया ने भी पाकिस्तानी नौसेना की ओर से लड़ने के लिए कम से कम एक नौसैनिक युद्धपोत ज़रूर रवाना किया था।
ऐसी स्थिति में रूस यदि भारत की सहायता नहीं करता तो भारत के ख़िलाफ़ अनेक मोर्चे खुल जाने की पूरी सम्भावना थी, जिससे भारत के लिए, सचमुच, बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती।
महाशक्तियों की तनातनी
निक्सन और किसिंजर जहाँ एक ओर भारत पर बेकार के घटिया और झूठे आरोप लगा रहे थे, वहीं दूसरी ओर 10 दिसम्बर को भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों ने एक अमरीकी सन्देश पकड़ा, जिसमें अमरीकी नौसेना के सातवें बेड़े के भारतीय जलसीमा की ओर बढ़ने की बात कही गई थी। अमरीकी नौसेना का सातवाँ बेड़ा उस समय तोनकिन की खाड़ी में तैनात था। परमाणु ऊर्जा से संचालित 75 हजार टन क्षमता वाला ‘यूएसएस इण्टरप्राइज’ नामक विमानवाहक युद्धपोत इस बेड़े का नेतृत्व कर रहा था। ‘यूएसएस इण्टरप्राइज’ उस समय दुनिया का सबसे बड़ा युद्धपोत था, जिस पर 70 से भी अधिक लड़ाकू और बमवर्षक विमान तैनात थे। अमरीकी नौसेना के इस सातवें बेड़े में ‘यूएसएस किंग’ नामक निर्देशित मिसाइल क्रूजर युद्धपोत, ‘यूएसएस डेकाटर’, ‘पार्सन्स’ तथा ‘तार्तार सैम’ नामक निर्देशित मिसाइल विध्वंसक युद्धपोत और जल व थल दोनों पर चलने वाला ‘यूएसएस त्रिपोली’ नामक एक विशाल प्रहार युद्धपोत भी शामिल थे।
अमरीकी युद्धपोतों से भारतीय शहरों को बचाने की ज़िम्मेदारी भारतीय नौसेना के पूर्वी बेड़े की थी। 20 हज़ार टन क्षमता वाला ‘विक्रान्त’ नामक विमानवाहक युद्धपोत भारतीय नौसेना के इस पूर्वी बेड़े का नेतृत्व कर रहा था, जिस पर मुश्किल से 20 हलके लड़ाकू विमान तैनात थे। फ़्लैग अफ़सर कमाण्डिंग-इन-चीफ़ वाइस एडमिरल नीलकान्त कृष्णन से जब पूछा गया कि क्या भारतीय नौसेना का पूर्वी बेड़ा अमरीकी नौसेना के सातवें बड़े का मुकाबला कर सकेगा, तो उन्होंने जवाब दिया — हमें तो बस आदेश का ही इन्तज़ार है। भारतीय वायुसेना भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू होने के बाद एक सप्ताह के भीतर ही पाकिस्तानी वायुसेना का पूरी तरह से सफ़ाया कर चुकी थी। ‘यूएसएस इण्टरप्राइज’ पर तैनात लड़ाकू विमानों के किसी भी सम्भावित हमले का मुक़ाबला करने के लिए भारतीय सेना पूरी तरह से चौकस थी।
चीन और रूस के बीच युद्ध का इतिहास
इस बीच सोवियत गुप्तचरों ने यह जानकारी दी कि ब्रिटिश विमानवाहक युद्धपोत ‘ईगल’ के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसैनिक टुकड़ी भारतीय जलसीमा के नज़दीक पहुँच चुकी है। आधुनिक इतिहास की शायद यह सबसे अधिक विडम्बनापूर्ण स्थिति थी कि पश्चिम के दो प्रमुख लोकतान्त्रिक देश विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश को धमका रहे थे और वह भी किसलिए? जर्मनी में हिटलरी शासन द्वारा यहूदी नरसंहार किए जाने के बाद से दुनिया में अब तक का सबसे भीषण नरसंहार करने वाली आसुरी ताकतों की रक्षा के लिए। हालाँकि अमरीका और ब्रिटेन की इन करतूतों से भारत बिल्कुल आतंकित नहीं हुआ। 1970 की भारत-सोवियत सुरक्षा सन्धि का एक गुप्त प्रावधान यह था कि कोई बाहरी आक्रमण होने की स्थिति में रूस भारत की रक्षा करने के लिए बाध्य है। भारत ने चुपचाप रूस को भारत-सोवियत सुरक्षा सन्धि के इस गुप्त प्रावधान पर अमल करने का अनुरोध भेज दिया।
ब्रिटेन और अमरीका ने भारत को डराने के लिए उसे दो तरफ़ से घेरने की योजना बनाई थी। इस सँयुक्त योजना के तहत अरब सागर में मौजूद ब्रिटेन के युद्धपोतों को भारत के पश्चिमी तट को निशाना बनाना था, जबकि अमरीकी युद्धपोतों को बड़ी तेज़ी से बंगाल की खाड़ी से भारत की ओर बढ़ना था ताकि बांग्लादेश में लगातार आगे बढ़ रहे भारतीय सैनिकों और समुद्र के बीच चूहेदानी में चूहों की तरह फँसे एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों की सहायता की जा सके।
ब्रिटेन और अमरीका साथ मिलकर भारत के लिए जो दुतरफ़ा ख़तरा पैदा कर रहे थे, उसकी काट के लिए रूस ने 13 दिसम्बर को अपने दसवें नौसैनिक बेड़े को भारत की तरफ़ रवाना कर दिया। रूस के इस प्रशान्त महासागरीय बेड़े के कमाण्डर एडमिरल व्लदीमिर क्रूग्लिकफ़ की कमान में यह नौसैनिक बेड़ा व्लदीवस्तोक से भारत के लिए रवाना हो चुका था। हालाँकि इस रूसी नौसैनिक बेड़े में शामिल युद्धपोतों पर अच्छी-खासी संख्या में परमाणु हथियार तैनात थे और उसमें परमाणु पनडुब्बियाँ भी शामिल थीं, परन्तु उनके मिसाइलों की मारक क्षमता 3 सौ किलोमीटर से भी कम थी। इसलिए ब्रिटेन और अमरीका के नौसैनिक बेड़ों का असरदायक जवाब देने के लिए रूसी कमाण्डरों ने उनको चारों तरफ़ से घेर लिया। इस तरह ब्रिटेन और अमरीका के नौसैनिक बेड़े रूसी मिसाइलों की मारक क्षमता के भीतर आ गए। रूसी कमाण्डरों ने इस काम को बड़ी कुशलता के साथ पूरा किया।
एडमिरल क्रूग्लिकफ़ 1970 से 1975 तक रूसी नौसेना के प्रशान्त महासागरीय नौसैनिक बेड़े के कमाण्डर रहे। सेवानिवृत्त होने के बाद रूस के एक टेलीविजन चैनल पर उन्होंने बताया — हमें यह आदेश मिला था कि हम अमरीकी और ब्रिटिश युद्धपोतों को ’भारतीय सैन्य ठिकानो’ के नज़दीक न पहुँचने दें। हँसमुख स्वभाव के एडमिरल क्रूग्लिकफ़ ने आगे कहा — हमारे मुख्य कमाण्डर का आदेश था कि अमरीकियों के दिखाई देते ही हमारी पनडुब्बियाँ सतह पर ऊपर आ जानी चाहिए। ऐसा उन्हें यह दिखाने के लिए किया गया था कि हिन्द महासागर में हमारी परमाणु पनडुब्बियाँ भी मौजूद हैं। तो जब हमारी पनडुब्बियाँ सतह पर आईं, तो अमरीकियों ने हमें पहचान लिया। अमरीकी नौसेना का रास्ता रोके सोवियत क्रूजर युद्धपोत, विध्वंसक युद्धपोत और युद्धपोत-रोधी मिसाइलों से लैस परमाणु पनडुब्बियाँ खड़ी थीं। हमने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था और अमरीका के ‘इण्टरप्राइज’ युद्धपोत को अपने मिसाइलों के निशाने पर ले रखा था। हमने उन्हें वहीं पर रोक लिया और कराची, चटगाँव या ढाका की ओर नहीं बढ़ने दिया।
रूस और भारत : सभ्यताओं की मैत्री
इसी समय रूसी गुप्तचरों ने ब्रिटेन के विमानवाहक युद्धपोत बेड़े के कमाण्डर एडमिरल डाइमन गोर्डन की ओर से अमरीकी नौसेना के सातवें बेड़े के कमाण्डर को भेजा गया यह सन्देश पकड़ा — जनाब, हम लोग बहुत देर से पहुँचे हैं। यहाँ पर तो रूसी परमाणु पनडुब्बियाँ पहले ही मौजूद हैं। भारी संख्या में रूसी युद्धपोत भी दिख रहे हैं। ब्रिटेन के युद्धपोत मेडागास्कर की ओर भाग खड़े हुए, जबकि अमरीका के विशाल नौसैनिक बेड़े को बंगाल की खाड़ी में घुसने से पहले ही रोक लिया गया।
साफ़ है कि इन रूसी पैंतरों के कारण ही भारत और अमरीका-ब्रिटेन गठजोड़ के बीच सीधी झड़प की नौबत नहीं आई। हाल ही में जारी किए गए दस्तावेज़ों से यह बात पता चलती है कि भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी बांग्लादेश को आज़ाद कराने की अपनी योजना को लेकर निडरता से आगे बढ़ींं, जबकि उन्हें यह सूचना मिल चुकी थी कि अमरीका ने भारत को रोकने के लिए नौसैनिकों की तीन बटालियनों को अलग से तैयार रखा है और अमरीकी नौसेना के विमानवाहक युद्धपोत ‘यूएसएस इण्टरप्राइज’ को आदेश मिल चुका है कि वह भारतीय सेना को निशाना बनाए। भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना की रक्षा पंक्ति को रौंद चुकी थी और पश्चिमी पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर लाहौर के बहुत नज़दीक जा पहुँची थी।
भारत के विदेश मन्त्रालय द्वारा तैयार की गई छह पृष्ठों की एक टिप्पणी के अनुसार — इण्टरप्राइज युद्धपोत पर तैनात बमवर्षक विमानों को अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से यह आदेश मिला हुआ था कि वे ज़रूरत पड़ने पर भारतीय सेना की संचार लाइन पर बमबारी करें।
चीन की परेशानी
किसिंजर के उकसाने और पाकिस्तान के बार-बार सहायता की पुकार लगाने के बावजूद चीन ने कुछ नहीं किया। अमरीकी राजनयिक दस्तावेज़ों से यह बात पता चलती है कि इन्दिरा गाँधी को पता था कि सोवियत संघ ने चीनी हस्तक्षेप की सम्भावना पर विचार कर लिया है। 10 दिसम्बर को हुई भारत सरकार के मन्त्रिमण्डल की बैठक के बारे में एक समुद्री तार में बताया गया है — इन्दिरा गाँधी ने कहा कि यदि चीन इस लड़ाई में सीधे तौर पर शामिल होता है, तो चीनियों को भी पता है कि सोवियत संघ उनके सिन्कियांग प्रदेश में कार्रवाई करेगा। ऐसी स्थिति पैदा होने पर भारत को सोवियत वायुसैनिक सहायता भी मिल सकती है।
रोचक बात यह है कि इस समुद्री तार को तो जारी कर दिया गया है, किन्तु इसके सूत्र और भारतीय प्रधानमन्त्री को जानकारी दिए जाने के विस्तृत विवरण को अभी भी गुप्त ही रखा गया है। दस्तावेज़ में सिर्फ़ यही लिखा है कि वह हमारा बहुत विश्वस्त सूत्र है। यह बात बिल्कुल साफ़ है कि इन्दिरा जी के मन्त्रिमण्डल का ही कोई सदस्य अमरीकियों के लिए भेदिए का काम कर रहा था।
असहनीय घृणा
14 दिसम्बर को पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान के सैन्य कमाण्डर जनरल अमीर अब्दुल्लाह खान नियाजी ने ढाका स्थित अमरीकी महावाणिज्यदूत को बताया कि वह आत्मसमर्पण करना चाहते हैं। यह सन्देश वाशिंगटन पहुँचाया गया, लेकिन अमरीका ने भारत को इसकी सूचना 19 घण्टे बाद दी। फ़ाइलों के अनुसार भारत के वरिष्ठ राजनयिकों को यह सन्देह था कि अमरीका शायद भारत के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करने पर विचार कर रहा था, इसीलिए उसने इस सन्देश को पहुँचाने में 19 घण्टे की देरी की।
किसिंजर तो इस हद तक चले गए कि उन्होंने पाकिस्तानी संकट को “हमारी राइन भूमि” कह दिया। उल्लेखनीय है कि दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत में हिटलर द्वारा किए गए जर्मन राइन भूमि के सैन्यीकरण के लिए ’हमारी राइन भूमि’ वाक्य का इस्तेमाल किया जाता था। अमरीका के इस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किए जाने से पता चलता है कि किसिंजर और निक्सन भारत को कितना बड़ा ख़तरा मानने लगे थे।
इण्डियाना विश्वविद्यालय ने भारत-पाकिस्तान के इस युद्ध का एक अध्ययन किया है, जिसमें लिखा है — 30 मार्च के एक अमरीकी समुद्री तार में बांग्लादेश में हुए बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघन को ’चुन-चुन कर नरसंहार’ कहा गया है। निक्सन और किसिंजर को पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक मूल्यों की भीषण अवहेलना से बिल्कुल कोई परेशानी नहीं हो रही थी। बल्कि लगता तो यह है कि पाकिस्तान के तानाशाह याह्या खान के गैर-लोकतान्त्रिक व्यवहार से ही अमरीकी सबसे अधिक प्रभावित थे। पूर्वी पाकिस्तान में वहाँ की सेना जो भयंकर अत्याचार कर रही थी, जब मीडिया में उसकी रिपोर्टें एक के बाद एक धड़ाधड़ आने लगीं, तो भी निक्सन और किसिंजर पर कोई असर नहीं पड़ा। वरिष्ठ समीक्षा समूह की एक बैठक में जब किसिंजर को बांग्लादेश के एक विश्वविद्यालय में पाकिस्तानी सेना द्वारा भारी संख्या में लोगों के मारे जाने का समाचार दिया गया, तो उन्होंने यह बेहूदा टिप्पणी की — ब्रिटिश लोगों ने 40 करोड़ भारतीयों पर इतने साल नरमी से तो राज नहीं किया था न।
निक्सन और किसिंजर ने सोवियत संघ के राष्ट्रपति लिअनीद ब्रेझ़निफ़ को फ़ोन करके यह आश्वासन माँगा था कि भारत पश्चिमी पाकिस्तान पर हमला नहीं करेगा। प्रोफ़ेसर व्लदीस्लाफ़ ज़ूबक ने ‘विफल साम्राज्य’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है — निक्सन आगे मस्कवा में होने वाली शिखर वार्ता को सोवियत संघ के इस मुद्दे से सम्बन्धित व्यवहार से जोड़ने को तैयार थे। सोवियत संघ यह नहीं समझ पा रहा था कि अमरीका आख़िर पाकिस्तान का इतना समर्थन क्यों कर रहा है। सोवियत नेताओं का मानना था कि पाकिस्तान ने ही भारत से युद्ध शुरू किया है। सोवियत संघ के राष्ट्रपति लिअनीद ब्रेझ़निफ़ शुरू-शुरू में तो जरूर कुछ समझ नहीं पाए, किन्तु जल्दी ही वे अमरीका की शातिर पैंतरेबाजी को समझ गए। वे अमरीका इस रवैये को लेकर बहुत नाराज़ हुए। अपने घनिष्ठ सहयोगियों के सामने उन्होंने यह प्रस्ताव भी रख दिया कि हमें भारत को परमाणु बम बनाने का सूत्र बता देना चाहिए। लेकिन उनके सलाहकारों ने उन्हें ऐसा न करने के लिए मना लिया। कई साल बीतने के बाद भी लिअनीद ब्रेझ़निफ़ उस समय के अमरीकी व्यवहार को लेकर नाराज़ रहते थे और उसके बारे में काफ़ी कड़ी बातें किया करते थे।
शीत युद्ध की सड़ी मानसिकता
षड्यन्त्र रचने वाले इन दोनों अमरीकी नेताओं के बीच टेलीफ़ोन पर हुई एक और बातचीत से पता चलता है कि अमरीका में फ़ैसला लेने वाले सबसे ऊँचे नेताओं की मनोवृत्ति क्या थी।
किसिंजर — और कल आपने जो दूसरा मुद्दा सामने रखा था कि हमें यह सब बीत जाने के बाद भी भारत पर लगातार दबाव बनाए रखना है।
निक्सन — हमें पुनर्वास का काम करना है। हे भगवान, भारत ने कितनी बमबारी की है — मुझे इस लड़ाई में पाकिस्तान को हुए पूरे नुक़सान की जानकारी चाहिए। देखिए, मैं लड़ाई में कराची और अन्य इलाकों में हुए नुक़सान को लेकर पाकिस्तान की मदद करना चाहता हूँ?
किसिंजर — जी।
निक्सन — मैं भारत को ख़ुश नहीं देखना चाहता। मैं चाहता हूँ कि भारत की निन्दा करने के लिए एक सार्वजनिक अभियान चलाया जाए।
किसिंजर — जी।
निक्सन — मैं चाहता हूँ कि भारत को ज़िम्मेदार ठहराते हुए एक निन्दा अभियान चलाया जाए। एक श्वेत-पत्र निकालिए। श्वेत-पत्र जारी कीजिए। श्वेत-पत्र। समझे?
किसिंजर — जी, बिल्कुल।
निक्सन — मैं केवल आपके पढ़ने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं इस मामले पर श्वेत-पत्र की बात कर रहा हूँ।
किसिंजर — नहीं, नहीं। मैं समझ रहा हूँ।
निक्सन — मैं चाहता हूँ कि इस बात के लिए भारत को दोषी ठहराया जाए। समझ रहे हैं न कि मैं क्या कह रहा हूँ? हम इन दुष्ट, पाखण्डी भारतीयों को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे। हेनरी, आख़िर उन्होंने वियतनाम के मामले पर लगातार 5 साल तक हमारी निन्दा की है।
किसिंजर — बिल्कुल।
निक्सन — क्या भारत बहुत अधिक लोगों को नहीं मार रहा है?
किसिंजर — आपकी बात ठीक है, लेकिन हमारे पास अभी तक कोई आँकड़ा नहीं है। किन्तु एक बात पक्की है कि वे पश्चिमी पाकिस्तानियों जितने मूर्ख नहीं हैं — वे पत्रकारों को हर जगह नहीं जाने देते। बुद्धू पाकिस्तानियों ने तो हर जगह पर पत्रकारों को बैठा रखा है।
यह जरूरी नहीं है कि लेखक की राय ‘रूस-भारत संवाद’ के नजरिए से मिलती हो।