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भारत रूसी रक्षा तकनीक का पूरी तरह से अपने यहाँ उत्पादन करने में विफल क्यों?

विगत 9 मार्च को, टाइम्स ऑफ इण्डिया ने लिखा है कि पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान के सँयुक्त उत्पादन के लिए  भारत रूस से कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ माँग रहा है। भारत के रक्षा मन्त्रालय के सूत्रों के हवाले से समाचारपत्र ने कहा है कि भारत इस विमान का सँयुक्त रूप से उत्पादन करने के लिए तभी तैयार होगा, जब भारत को इस विमान की पूरी तकनीक सौंपी जाएगी और रूस भारत को मध्यम दूरी के स्वदेशी उन्नत लड़ाकू विमान के विकास में भी मदद देने को तैयार होगा।

समाचारपत्र के अनुसार, भारत द्वारा रूस के सामने इस तरह की माँग रखे जाने का कारण वह अनुभव है, जो उसे सुखोई-30एमकेआई के उत्पादन कार्यक्रम के दौरान हुआ। इस विमान के निर्माण में भारत को 5 खरब 57 अरब 17 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े हैं, जबकि विमान का उत्पादन करने के लिए स्वदेशी ढाँचे के निर्माण का खर्च उसमें शामिल नहीं है। भारत की विमान निर्माता कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स आज भी अपने आप सुखोई विमान का पूरी तरह से उत्पादन नहीं कर सकती है।

क्या रूस भारत की कमज़ोरी का फ़ायदा उठा रहा है?

रूस-भारत संवाद ने विशेषज्ञों से बातचीत करके यह जानने की कोशिश की कि भारत की माँग कितनी जायज है और वास्तव में समस्या क्या है?

प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण की सीमा 

विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी देश जब अपनी सैन्य प्रौद्योगिकी किसी देश को देता है, तो वह एक सीमा तक ही वह प्रौद्योगिकी दूसरे देश को हस्तान्तरित कर सकता है। रूस की अन्तरराष्ट्रीय मामला परिषद के विशेषज्ञ अलिक्सान्दर येर्मकोफ़ ने कहा — मिसाइल, संचार और इलैक्ट्रोनिक युद्ध प्रणालियों जैसी विशेष किस्म की तकनीक के मामले में अक्सर ऐसा ही होता है, क्योंकि इस तरह की तकनीक किसी भी देश की सुरक्षा को सुनिश्चित करती है।  

येर्मकोफ़ ने कहा — ये सीमाएँ आम तौर पर उस देश के साथ रिश्तों पर निर्भर करती हैं, जिसे प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण किया जा रहा है। लेकिन दुपक्षीय रिश्तों में दोनों देश किसी प्रौद्योगिकी के मामले में आपस में सौदेबाज़ी भी कर सकते हैं।   

मस्क्वा (मास्को) स्थित रणनीतिक तकनीकी विश्लेषण केन्द्र के उपनिदेशक कंस्तान्तिन मकियेन्का ने कहा — अगर इण्डोनेशिया रूस से दस-बारह एसयू-35 लड़ाकू विमान ख़रीदेगा तो रूस शायद ही उसके साथ तक्नोलौजी के हस्तान्तरण के बारे में कोई बातचीत करेगा। इसके विपरीत पिछली सदी के अन्तिम दशक मे मध्य में जब चीन ने रूस से 48 एसयू-27 लड़ाकू विमान ख़रीदे थे, तो उसे रूसी लायसेंस के आधार पर इन विमानों का उत्पादन करने के लिए तक्नोलौजी भी दे दी गई थी। कोई देश जितनी बड़ी रकम की ख़रीददारी करता है, उसे तक्नोलौजी मिलने की सम्भावना भी उतनी ही ज़्यादा होती है। 

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अगर ख़रीददार देश के भूरणनीतिक और सैन्य हित भी वैसे ही हैं और अतीत में दो देशों के बीच फलदायक सहयोग होता रहा है, तो रूस जैसे देश के लिए तक्नोलौजी बेचना भी बहुत आसान हो जाता है। मकियेन्का की नज़र में इस दृष्टि से देखा जाए तो भारत की स्थिति पाकिस्तान के मुक़ाबले बहुत अच्छी है, जो दक्षिणी एशिया में उक्रईना की तरह का ही एक अस्थिर देश है और जिसके बारे में पक्की तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कब क्या करेगा।

भारत के साथ सहयोग को प्राथमिकता 

रूस के साथ सहयोग करने वाले देशों में भारत को विशेष महत्व दिया जाता है। लेकिन रूसी रक्षा तक्नोलौजी का उत्पादन करने में मुख्य बाधा यह आती है कि भारत के पास वह औद्योगिक क्षमता ही नहीं है, जिसकी ज़रूरत रूसी रक्षा प्रौद्योगिकी का उत्पादन करने में पड़ती हैं।

मस्क्वा (मास्को) के सुदूर-पूर्व अध्ययन संस्थान और हायर स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के विशेषज्ञ वसीली काशिन ने रूस-भारत संवाद से बात करते हुए कहा —  भारत के साथ सहयोग करते हुए भारत को सैन्य तक्नोलौजी के हस्तान्तरण पर रूस ने कभी कोई सीमा नहीं लगाई है।  

उन्होंने कहा कि अब यह भारत पर निर्भर करता है कि वह किसी निश्चित प्रौद्योगिकी के लिए भुगतान करके उसका उत्पादन अपने यहाँ कैसे करेगा। इसी से बड़े पैमाने पर दो देशों के बीच सहयोग को आगे विकसित करने की संभावना भी बनेगी। एसयू-30एमकेआई लड़ाकू विमान के मामले में भी समस्या यही है कि भारत के पास उसका औद्योगिक उत्पादन करने की पूरी क्षमता नहीं है। भारत के पास ऐसे कुशल श्रमिक ही नहीं हैं, जो विमान का उत्पादन करने के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान रखते हों। बस, यही मुख्य दिक्कत है। 

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भारत के पूर्व विदेश सचिव और 2004 से 2007 तक रूस में भारत के राजदूत रहे कँवल सिब्बल का मानना है कि हाँ, इस तरह की समस्या मौजूद है।

रूस भारत संवाद से बात करते हुए कँवल सिब्बल ने कहा — भारत अपने स्वदेशी रक्षा उद्योग का विकास करने में असफल रहा है। लेकिन रक्षा से जुड़ी उसकी ज़रूरतों का कोई अन्त नहीं है। इस समय हम दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े आयातक देश हैं। जिस देश को भारी सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा हो, उसके लिए यह बात बड़ी बेतुका लगती है कि उसका अपना रक्षा उद्योग काफ़ी विकसित नहीं है। रूस हमें उन्नत क़िस्म के हथियार तो दे सकता है, लेकिन अपने दम पर उनका उत्पादन करने की क्षमता उपलब्ध नहीं करा सकता।  

मिलकर बनाओ 

इस सिलसिले में भारत चीन से बहुत पिछड़ गया है। चीन ने तो ख़रीदी गई तक्नोलौजियों का अपने यहाँ न सिर्फ़ इस्तेमाल करने की क्षमता पैदा कर ली है, बल्कि वह उनका बड़ी सफलता के साथ आधुनिकीकरण भी कर लेता है। परन्तु भारत ऐसा नहीं कर पाता। अगर रूस गम्भीरता से यह तय कर ले कि दोनों देश मिलकर तक्नोलौजियों का विकास करेंगे और फिर मिलकर उनका उत्पादन करेंगे तो इससे दोनों देश एक-दूसरे पर अधिक निर्भर हो जाएँगे और भारत की तो क़िस्मत ही खुल जाएगी। 

कंस्तान्तिन मकियेन्का ने कहा — 1962 में दो देशों के बीच शुरू हुए रक्षा सम्बन्धी सहयोग के विकास की दृष्टि से यह एक स्वाभाविक क़दम होगा। अब हम सँयुक्त रूप से परियोजनाएँ बनाकर नई प्रौद्योगिकियों का सँयुक्त रूप से विकास करना चाहिए, तभी हम वास्तव में भारत और रूस द्वारा सँयुक्त रूप से निर्मित ब्राण्ड को बढ़ावा दे सकते हैं। 

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कँवल सिब्बल मकियेन्का की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं। लेकिन चेतावनी देते हुए वे कहते हैं कि ’मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम के अन्तर्गत भारतीयों को काम सिखाना रूसी कम्पनियों के लिए थोड़ा मुश्किल हो सकता है। रूस-भारत संवाद से बात करते हुए उन्होंने कहा — रूसी कम्पनियों के लिए ऐसा करना एक चुनौती होगा क्योंकि अभी तक दो देशों के बीच जो सरकारी समझौते हुए हैं, उनपर सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों में ही अमल किया गया है। 

इन दिक्क़तों को दूर करके दोनों पक्ष एक-दूसरे पर अधिक निर्भर हो सकते हैं और पाँचवी पीढ़ी के लड़ाकू विमान के निर्माण जैसी परियोजनाओं को और बड़े पैमाने पर मिलकर सफल बना सकते हैं। 

कँवल सिब्बल ने कहा — पाँचवी पीढ़ी के लड़ाकू विमान के निर्माण का कार्यक्रम भारत को नए से नए हथियारों के निर्माण में बेहद सक्षम बना देगा। और अगर ऐसा हो गया तो भारत के भविष्य के लिए यह एक बड़ी सफलता होगी।

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